
विशेष संपादकीयः प्रधानमंत्री ने तीन राज्यों में स्थित सभी तीनों प्रमुख कोरोना वैक्सीन उत्पादन केन्द्रों का स्वयं मुआयना कर निर्माताओं को हर संभव सरकारी मदद का आश्वासन दिया. अंग्रेजी में एक मुहावरा है—लीडिंग फ्रॉम द फ्रंट याने युद्ध-स्थल में सेनापति का सामने से नेतृत्व करना. इससे सेना में लड़ने का एक नया जोश आता है यह मानते हुए कि उनका सेनापति भी जान की बाजी लगा कर नेतृत्व दे रहा है. लेकिन अग्रिम कतार में रहने के कारण अगर सेनापति को विरोधी के हमले से को कुछ क्षति हुई तो सेना का मनोबल अचानक गिरता है. दुनिया के इतिहास में वैक्सीन का इतनी जल्दी लोक-प्रयोग के लिए आना “वैज्ञानिक कदाचार” है. कई साल तक मानव शरीर पर होने वाले दुष्प्रभाव से निश्चिंत होने के बाद हीं एक वैक्सीन को आम प्रयोग की अनुमति दी जाती है. लेकिन चूंकि कोरोना महामारी दुनिया के अस्तित्व के लिए ख़तरा बन चुकी है लिहाज़ा वैज्ञानिक दुनिया में नियम शिथिल करने की एक अघोषित आम सहमति है.

व्यावहारिक राजनीति के तहत आमतौर पर कोई भी राजनेता इन केन्द्रों पर जाना गवारा नहीं करेगा क्योंकि टीके लगने के बाद अगर कोई दुष्परिणाम आते हैं तो सीधा वह दोषी माना जाएगा और फिर वह इसका दोष वैज्ञानिकों पर नहीं मढ़ पायेगा. लेकिन प्रधानमंत्री ने वीरोचित कदम उठाया और इन तीनों वैक्सीन कैंडिडेट्स के केन्द्रों पर गए. नेतृत्व का तब भी विरोध हुआ जब लॉकडाउन लगा और इसे तीन बार तमाम कष्टों के बावजूद बढ़ाया गया. फिर जब इस पर आंशिक नियंत्रण के संकेत मिलने लगे और आर्थिक मजबूरियों के कारण इसे “अनलॉक” करना पड़ा तब भी आरोप लगे.
तीसरा आरोप तब से आज तक लगता रहा कि सरकार ने तथाकथित २० लाख करोड़ रुपये के राहत पैकेज में कैश-आउटगो केवल २.५० लाख करोड़ हीं दिया है और जिसे बढ़ाना जरूरी है. जाहिर है अगर सरकार यह मार्ग अपनाती तो वित्तीय घाटा भयानक ढंग से बढ़ता क्योंकि राजस्व के स्रोत सूख चुके थे. इस दृढ फैसले का नतीजा यह रहा कि आज भारत दुनिया में विदेशी पूँजी-निवेश का जापान से भी बड़ा केंद्र बन गया है. दूसरी तिमाही में आर्थिक संकुचन भी दुनिया के ४९ अन्य देशों के मुकाबले कम (७.५ प्रतिशत) रहा है। प्रजातंत्र में सरकार का विश्लेषण पूर्वाग्रह-शून्य भाव से होना चाहिए.
-एन के सिंह, वरिष्ठ पत्रकार एवं पूर्व महासचिव, बीईए