
Solapur: People stand in queues to cast their votes during Maharashtra Assembly elections, in Solapur, Monday, Oct. 21, 2019. (PTI Photo)(PTI10_21_2019_000338B)
आनंद कौशल, मीडिया स्ट्रैटजिस्ट एवं वरिष्ठ पत्रकार
बिहार की पांच विधानसभा सीटों के उपचुनाव के नतीजे चौंकाने वाले हैं। हालांकि समस्तीपुर लोकसभा सीट पर उपचुनाव के परिणाम लोगों की उम्मीद के मुताबिक ही आए हैं लेकिन बिहार की पांचों विधानसभा सीटों पर उपचुनाव के नतीजों ने जितना हैरान किया है उससे ज्यादा सोचने वाली बात ये भी है कि असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी का बिहार में खाता खुलना कहीं आरजेडी, कांग्रेस और जेडीयू के लिए खतरे की घंटी तो नहीं। सीवान के दरौंदा से जहां भाजपा के बागी और निर्दलीय कर्णजीत सिंह की जीत हुई है तो वहीं जदयू प्रत्याशी अजय सिंह की हार हुई है। बेलहर सीट पर भी सांसद गिरधारी यादव के भाई लालधारी यादव की शिकस्त कुछ संकेत दे रही है। यहां से राजद उम्मीदवार रामदेव यादव विजयी हुए हैं, वहीं सिमरी बख्तियारपुर में भी राजद उम्मीदवार ज़फर आलम ने जीत दर्ज की है। वैसे नाथनगर सीट पर जदयू को जीत मिली है लेकिन इस एक सीट की जीत से एनडीए खेमे में उतनी खुशी नहीं है जितनी उसने उम्मीद की थी। कुल मिलाकर इन नतीजों से एक बात साफ हो गयी है कि धारा 370, पाकिस्तान के खिलाफ़ सैन्य कार्रवाई जैसे तमाम मुद्दों का बिहार में कोई असर नहीं दिखा और वोटरों ने स्थानीय मुद्दों को तरजीह देते हुए अपने उम्मीदवार का चयन किया। इसके साथ ही परिवारवाद को भी वोटरों ने खारिज़ कर दिया। सबसे बड़ी दुविधा इस बात को लेकर भी है कि क्या एनडीए की चुनावी रणनीति में कहीं कोई कमी रही या भाजपा और जदयू के अंदर खींचतान का बड़ा खतरा हार के रूप में दिख रहा है।


वैसे पांचों विधानसभा सीटों और एक लोकसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव से पहले भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के बयान ने थोड़ी मरहम पट्टी जरूर की लेकिन पार्टी के अंदर भाजपा-जदयू के बीच बयानबहादुरों ने पहले ही वो दरारें पैदा कर दीं थीं, जिसे भरने में सफलता नहीं मिल पायी। वहीं भाजपा से बाहर किए गए नेता की जीत पार्टी के लिए आत्ममंथन का भी संकेत दे रही है क्योंकि सीवान में जहां भाजपा ने पहले अपनी संसदीय सीट जदयू को दी उसके बाद दरौंधा सीट को भी जदयू को देकर बड़ी गलती कर दी। ये भी कहा जा रहा है कि दरौंधा सीट पर अजय सिंह की आपराधिक छवि भी लोगों के लिए बड़ा मुद्दा बना और वहां के वोटरों ने निर्दलीय प्रत्याशी को अपना विधायक बना लिया। सीवान में पूर्व सांसद ओमप्रकाश यादव सरीखे बड़े नेताओं से भी जदयू उम्मीदवार को बड़ा समर्थन नहीं मिल पाया। इधर, बेलहर सीट पर जनता ने परिवारवाद को खारिज कर दिया और गिरधारी यादव के भाई की जगह राजद के रामदेव यादव को अपना समर्थन दे दिया। किशनगंज सीट पर भाजपा की स्वीटी सिंह की हार भाजपा से ज्यादा जदयू के लिए लिटमेस टेस्ट साबित हुआ और यहां एआईएमआईएम उम्मीदवार कमरूल होदा की जीत ने ये साबित कर दिया कि मुस्लिमों ने धारा 370 और पाकिस्तान के खिलाफ़ भारत की कार्रवाई को कोई मुद्दा ना मानते हुए उनके खिलाफ़ वोट किया और जदयू भाजपा के सम्मिलित प्रयास का भी कोई सकारात्मक नतीजा सामने नहीं आया। वैसे यहां भाजपा उम्मीदवार की हार का एक बड़ा कारण कांग्रेस और राजद के उम्मीदवारों का मैदान में उतरना भी है लेकिन बड़ा सवाल यह भी है कि जदयू ने यहां लोकसभा चुनाव में अपने एकमात्र उम्मीदवार को जीत दिलाने में मुंह की ही खाई थी। अंदरखाने ये चर्चा शुरू हो गयी है कि इस चुनावी नतीजों से भाजपा 2020 के चुनावों के पहले अपनी रणनीति को अंतिम धार देने की तैयारी कर रही है। वर्तमान सीटों के उम्मीदवारों का कार्यकाल भले ही छोटा हो लेकिन इस हार जीत ने आरजेडी के लिए बड़ा संजीवनी देने का काम किया है।
बिहार की जनता जिस तरह से हर बार अपने परिणामों से सबको चौंकाती रही है एक बार फिर यह परिणाम यह बताने के लिए काफी है कि जनता से जुड़े ज़मीनी मुद्दों से नेताओं की बढ़ती दूरी अब बर्दाश्त से बाहर है। धारा 370, पाकिस्तान के खिलाफ़ स्ट्राइक जैसे मुद्दों से इतर जनता से जुड़े मुद्दों, गरीबी, बेरोजगारी, औद्योगिक विकास, बाज़ार की खराब हालत, शिक्षा-स्वास्थ्य-सामाजिक सुरक्षा पर सरकार को ध्यान देना होगा। वहीं यह चुनाव भले ही एनडीए के लिए सेमीफाइनल मुकाबला हो लेकिन इस मुकाबले में खराब प्रदर्शन की जवाबदेही लेनी होगी और वक्त रहते संभल जाने की भी जरूरत है ताकि 2020 के चुनाव में पछताना ना पड़े। महागठबंधन के लिए भी एक बड़ा संदेश यही है कि वह राजद के नेतृत्व में ही आगे बढ़ सकता है क्योंकि हम सुप्रीमो जीतनराम मांझी हों या वीआईपी के मुकेश सहनी या कांग्रेस सबको इस हार ने बड़ा संदेश दे दिया है कि बिहार में एनडीए के मुकाबले राजद को ही असली विपक्ष माना जा रहा है। बहरहाल चुनावी नतीजों पर आत्ममंथन करने के बाद आगे आने वाले 2020 के चुनावों की रणनीति में परिवर्तन की जरूरत है। जदयू हो चाहे भाजपा सबको अपने जमीनी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा से बचना होगा और ये देखना भी जरूरी होगा कि बागियों और असंतुष्टों को कैसे मनाया जाए और इन सबसे ज्यादा बचे हुए समय में जनता से किए गए वायदों को पूरा करने की दिशा में शीघ्रता से काम करने की जरूरत है, याद रखना होगा अब सोशल मीडिया और वेब जर्नलिज्म का जमाना है जब आपकी एक सफलता और असफलता की सारी कहानी बहुसंख्य लोगों तक कुछ मिनटों में पहुंच जाती है, लोग आपके कामों को याद रखते हैं और विपक्ष आपकी गलतियों को लोगों को याद दिलाते हैं लिहाजा ये जरूरी है कि बेहतर चुनावी प्रबंधन के साथ-साथ जनता से किए गए वायदों पर ध्यान दिया जाए, ये हार तो महज एक सबक है लेकिन अभी नहीं तो कभी नहीं की तर्ज पर दिन रात वायदों को पूरा करने का वक्त है।