
विशेष संपादकीय: ताज़ा दो घटनाओं से समझ में आयेगा कि अगर सरकारें किसी खास विचारधारा/हित में अपनी निष्पक्षता खो देती हैं तो नीचे तक उसका असर कैसे सिस्टम को तहस-नहस कर सकता है. चुनाव प्रजातंत्र की अपरिहार्य प्रक्रिया है. पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव-प्रचार अपने शबाब पर है. भाजपा अध्यक्ष के काफिले पर पत्थरबाजी हुई जिसमें महामंत्री सहित कई नेता घायल हुए. बुलेटप्रूफ कार के कारण पार्टी अध्यक्ष बच गए. आरोप है कि राज्य की पुलिस पत्थरबाजी देखती रही. याने अब प्रजातंत्र को बहाल रखना है तो बख्तरबंद गाड़ियों में “उनकी पुलिस की जगह अपनी सरकार की पुलिस लेकर चलना” होगा”. हकीकत यह है कि ७० वर्षों में हमारा प्रजातंत्र इतना कमजोर हो गया है कि पुलिस कैसे व्यवहार करेगी यह आईपीसी या संविधान नहीं, सरकार किसकी है, से तय होगा. और वह भी इस आधार पर कि पुलिस राज्य की है या केन्द्र की या फिर छापा मारने वाला दस्ता एनआईए का है या ईडी या इनकम टैक्स का.

जीडीपी बढ़ा तो नेताओं की सुरक्षा पर खर्च भी जैसे समृद्धि का अशांति से आनुपातिक रिश्ता हो. जन-प्रतिनिधि किसी धर्म-विशेष की लानत-मलानत इसलिए भी करने लगा कि सरकार उसे “थ्रेट परसेप्शन” के तहत भारी सुरक्षा दे दे ताकि उसकी “दुकान” चले. सरकार की निष्पक्षता न होने का एक अन्य रूप देखें. यूपी सरकार ने तथाकथित “लव जिहाद” के खिलाफ कानून बनाया है. पुलिस को “संदेश” मिल गया. कुशीनगर जिले में एक थाने में गुमनाम काल आया कि अमुक जगह पर एक मुसलमान एक हिन्दू लडकी को गुमराह कर शादी कर रहा है. फिर क्या था, दरोगा जी दल-बल के साथ जा कर मंडप से काजी के सामने लड़के-लडकी को उठा लाये, हवालात में रखा.
लड़के का आरोप है पुलिस ने उसे बेल्ट से रात भर मारा. सुबह लडकी और लड़के वालों के संबंधी पहुंचे और हकीकत बताई कि दोनों पक्ष मुसलमान हैं और कोई “लव-जेहाद” का मामला नहीं है. कुछ माह पहले इसी प्रदेश के शामली जिले में एक बावर्दी एसपी ने कांवरिये (शिव भक्त) का पैर दबाया और धोया और इस फोटो को मीडिया को हीं नहीं दिया, गेरुआधारी मुख्यमंत्री के कार्यालय भी भेजा. यह है ७० साल के प्रजातंत्र का विद्रूप चेहराएन के सिंह
ताज़ा दो घटनाओं से समझ में आयेगा कि अगर सरकारें किसी खास विचारधारा/हित में अपनी निष्पक्षता खो देती हैं तो नीचे तक उसका असर कैसे सिस्टम को तहस-नहस कर सकता है. चुनाव प्रजातंत्र की अपरिहार्य प्रक्रिया है. पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव-प्रचार अपने शबाब पर है. भाजपा अध्यक्ष के काफिले पर पत्थरबाजी हुई जिसमें महामंत्री सहित कई नेता घायल हुए. बुलेटप्रूफ कार के कारण पार्टी अध्यक्ष बच गए. आरोप है कि राज्य की पुलिस पत्थरबाजी देखती रही. याने अब प्रजातंत्र को बहाल रखना है तो बख्तरबंद गाड़ियों में “उनकी पुलिस की जगह अपनी सरकार की पुलिस लेकर चलना” होगा”. हकीकत यह है कि ७० वर्षों में हमारा प्रजातंत्र इतना कमजोर हो गया है कि पुलिस कैसे व्यवहार करेगी यह आईपीसी या संविधान नहीं, सरकार किसकी है, से तय होगा. और वह भी इस आधार पर कि पुलिस राज्य की है या केन्द्र की या फिर छापा मारने वाला दस्ता एनआईए का है या ईडी या इनकम टैक्स का. जीडीपी बढ़ा तो नेताओं की सुरक्षा पर खर्च भी जैसे समृद्धि का अशांति से आनुपातिक रिश्ता हो.
जन-प्रतिनिधि किसी धर्म-विशेष की लानत-मलानत इसलिए भी करने लगा कि सरकार उसे “थ्रेट परसेप्शन” के तहत भारी सुरक्षा दे दे ताकि उसकी “दुकान” चले. सरकार की निष्पक्षता न होने का एक अन्य रूप देखें. यूपी सरकार ने तथाकथित “लव जिहाद” के खिलाफ कानून बनाया है. पुलिस को “संदेश” मिल गया. कुशीनगर जिले में एक थाने में गुमनाम काल आया कि अमुक जगह पर एक मुसलमान एक हिन्दू लडकी को गुमराह कर शादी कर रहा है. फिर क्या था, दरोगा जी दल-बल के साथ जा कर मंडप से काजी के सामने लड़के-लडकी को उठा लाये, हवालात में रखा. लड़के का आरोप है पुलिस ने उसे बेल्ट से रात भर मारा. सुबह लडकी और लड़के वालों के संबंधी पहुंचे और हकीकत बताई कि दोनों पक्ष मुसलमान हैं और कोई “लव-जेहाद” का मामला नहीं है. कुछ माह पहले इसी प्रदेश के शामली जिले में एक बावर्दी एसपी ने कांवरिये (शिव भक्त) का पैर दबाया और धोया और इस फोटो को मीडिया को हीं नहीं दिया, गेरुआधारी मुख्यमंत्री के कार्यालय भी भेजा. यह है ७० साल के प्रजातंत्र का विद्रूप चेहरा
-एन के सिंह, वरिष्ठ पत्रकार एवं पूर्व महासचिव, बीईए