
अतिथि संपादक डॉ जी पी सिंह ‘आनंद’ की कलम से

“योगः कर्मसु कौशलम” अर्थात कर्म की कुशलता ही योग है। कर्म अर्थात मानवोचित कर्त्तव्य; मानवोचित कर्त्तव्य अर्थात शास्त्रीय आचरण; शास्त्रीय अर्थात शास्त्रसम्मत; शास्त्र अर्थात विज्ञान; विज्ञान अर्थात विशिष्ट ज्ञान; विशिष्ट ज्ञान अर्थात प्रकृति और पुरूष, जीव और जगत, जीवात्मा और परमात्मा, जड़ और चेतन, हृदय और मस्तिष्क, चेतना और मांसपेशी के समन्वय को स्थापित करने के लिए जानना। अतः विशिष्ट ज्ञान के माध्यम से प्रकृति के सभी तत्त्वों के बीच दैनिक व्यवहार में समन्वय करने की क्रिया या कर्म ही योग है।
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योग शारीरिक व्यायाम मात्र नहीं है, अपितु मन और तन का समन्वय है। यदि चेतना कहती है कि सवेरा हो गया, लेकिन मांसपेशी बिछावन से उतरने को तैयार नहीं है तो यह योग की स्थिति नहीं है।

चिंतन और क्रियाशील में भिन्नता हो तो यह योग की स्थिति नहीं है। हृदय में उठनेवाले भाव और मस्तिष्क के तर्क में फ़र्क है तो यह योग की स्थिति नहीं है।
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हमारे और आपके पारस्परिक संबंधों में तादात्म्य और प्रतिबद्धता नहीं है तो यह योग नहीं है। आइए, प्रकृति एवं पुरुष, जीव एवं जगत, जड़ एवं चेतन, हृदय एवं मस्तिष्क, चेतना एवं मांसपेशी तथा जन-जन के बीच समन्वय स्थापित कर योग करें एवं दैहिक, दैविक और भौतिक त्रितापों से स्वयं को मुक्त करें।