
कहते हैं राजनीति बड़ी निर्मम होती है। एक तो यहां गलतियों की गुंजाईश बहुत कम होती है दूसरी गलतियों पर सियासत की निर्ममता सालों तक सालती है। उपेन्द्र कुशवाहा कमोबेश इसी निर्ममता के शिकार नजर आते हैं। इसमें कहीं कोई दो राय नहीं है कि हाल के दिनों में उपेन्द्र कुशवाहा की लोकप्रियता बढ़ी है, और इस लोकप्रियता को और विस्तार देने की कोशिशों में उपेन्द्र कुशवाहा ने कई गलतियां की है। एनडीए के अंदर रहते हुए लड़ाई को नीतीश कुमार बनाम उपेन्द्र कुशवाहा बनाने की कोशिश उनकी बड़ी गलतियों में से एक है। सियासत की थोड़़ी बहुत समझ रखने वाला व्यक्ति भी यह अंदाजा लगा सकता है कि नीतीश कुमार चाहे जिस किसी राजनीतिक खेमें में रहे उनकी कीमत पर किसी दूसरे को तरजीह नहीं दी जा सकती। उपेन्द्र कुशवाहा की सियासी समझ यहां धोखा खा गयी।

अपने राजनीतिक हैसियत का आकलन स्वयं कर लेना और उस आकलन से उपजी अपनी सियासी हैसियत के हिसाब से हिस्सेदारी मांगना बड़ी रणनीतिक और राजनीतिक भूल हीं कही जाएगी। मौजूदा वक्त में यह संभव नहीं दिखता कि एक गठबंधन में रहते हुए लड़ाई उपेन्द्र कुशवाहा बनाम नीतीश कुमार की हो जाए और उपेन्द्र कुशवाहा यह लड़ाई जीत जाएं क्योंकि नीतीश कुमार का मिजाज बीजेपी समझती है। उनके तेवर और सरप्राइज वाली उनकी सियासत का अहसास बीजेपी को है। अपनी शर्तांे पर किसी भी गठबंधन में रहने वाले नीतीश कुमार भला उपेन्द्र कुशवाहा को क्यों बर्दाश्त करेंगे? एनडीए में रहते हुए नीतीश कुमार ने अपनी मर्जी के खिलाफ बीजेपी के स्टार प्रचारक कहे जाने वाले तब के गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को बिहार नहीं आने दिया। महागठबंधन में रहे तो नोटबंदी का समर्थन किया, एनडीए के उम्मीदवार को वोट किया। सियासी नफा-नुकसान से बेपरवाह नीतीश कुमार ने हाल के दिनों में एक बड़ा हुनर सीखा है। और वो हुनर है खुद को पाॅलिटिकल गैम्बलर दिखाने का। जब तक दोस्ती है तो ठीक है वरना हाल के दिनों में नीतीश कुमार ने तो राजभवन का रास्ता कई बार तय किया है। तो उपेन्द्र कुशवाहा शायद यही नहीं समझ सके कि नीतीश कुमार की कीमत पर बीजेपी उन्हें तरजीह नहीं देगी। शायद यही वजह है कि कथित ‘नीच’ वाले बयान पर जब उपेन्द्र कुशवाहा ने हो-हल्ला शुरू किया तो जेडीयू से ज्यादा बीजेपी उपेन्द्र कुशवाहा पर हमलावर हो गयी।
डिप्टी सीएम सुशील कुमार मोदी ने यहां तक कह दिया कि कुछ लोग शहीद बनने की कोशिश कर रहे हैं। जाहिर है तैयारी तो शहादत की हीं है लेकिन अपने आपमें यह सवाल बेहद अहम है कि आखिर शहादत से उपेन्द्र कुशवाहा को मिलेगा क्या? और इस सवाल की अहमियत उपेन्द्र कुशवाहा बखूबी समझते होंगे। विकल्प के रूप में महागठबंधन है। आॅफर भी उन्हें महागठबंधन से मिलता रहा है लेकिन फिर यहां भी कई अहम सवाल हैं। पहला सवाल तो यह कि क्या महागठबंधन में जाने के बाद उन्हें सीट शेयरिंग में उस राजनीतिक हैसियत के हिसाब से सीटें मिलेगी जिसका आकलन उन्होंने स्वयं किया है? दूसरा अहम सवाल यह है कि एनडीए में नीतीश कुमार जैसे कद्दावर राजनीतिज्ञ को बर्दाश्त नहीं कर पाने वाले उपेन्द्र कुशवाहा तेजस्वी यादव का नेतृत्व स्वीकार करेंगे, और करेंगे तो कब तक? जाहिर है उपेन्द्र कुशवाहा कई बड़े सवालों और इन सवालें से उपजे उलझनों की जद में है। फैसले में देरी की वजह संभवतः यही उलझन है और कमोबेश उपेन्द्र कुशवाहा उस विकट राजनीतिक परिस्थिति के शिकार भी हैं जहां फायदे-नुकसान का आकलन बेहद मुश्किल हो जाता है। कन्फयूजन की वजह से कन्क्लूजन पर नहीं पहुंचने वाले उपेन्द्र कुशवाहा के लिए बितता वक्त सियासत में उनकी राह को और संकीर्ण बना रहा है। बार-बार उन्हें आॅफर देने वाले महागठबंधन खेमे की खीझ कई बार सामने आ चुकी है। हांलाकि अब उस अल्टीमेटम का वक्त खत्म हो गया है। अल्टीमेटम को बीजेपी ने कितनी गंभीरता से लिया है यह भी जगजाहिर है। तो इंतजार बस अब औपचारिक एलान का हीं है।