
वरिष्ठ पत्रकार एन के सिंह की कलम से कोरोनरोधी दवाओं पर एक आलेख
बिहार ब्रेकिंग

कोरोना से युद्ध में केंद्र ने भारत में प्रोटीन सब-यूनिट के सर्वथा नए प्लेटफार्म पर बन रहे दो टीकों – कोर्बेवैक्स और कोवावैक्स- और मोल्नोपिराविर दवा के प्रयोग की अनुमति दे दी है। अभी एक अन्य दवा पैक्सलोविड को अनुमति दी जानी है। इन दोनों दवाओं को दुनिया के 30 सम्पन्न देश भारी दाताद में खरीद रहे हैं। पैक्सलोविड, जो दो साल्ट्स- निर्माट्रेलविर और रेटोनाविर का मिश्रण है जिसमें पहला वायरस प्रोटीन का संवर्धन रोकता है जबकि दूसरा पहली को शरीर में बने रहने में मदद देता है। मोल्नोपिराविर वायरस के जेनेटिक कोड में दोष पैदा कर देती है जिससे वायरस अपनी कॉपी नहीं बना पाता। पहली दवा पांच दिनों तक घर पर भी दी जा सकती है जबकि दूसरी डॉक्टर की देखरेख में देनी होगी।
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दोनों दवाओं की कीमत प्रति मरीज क्रमशः भारतीय रुपयों में 45 हज़ार और 70 हजार है लेकिन भारत में तमाम कंपनियों को इन्हें बनाने का लाइसेंस दिया गया है लिहाज़ा इनकी कीमतें काफी कम होंगीं। जब दुनिया के ख़त्म होने का ख़तरा हो, हर रोज महामारी नए-नए रूपों में मानव अस्तित्व को चुनौती दे रहा हो और जब वैश्विक अर्थ-व्यवस्था में हर देश दूसरे पर निर्भर हो, क्या किसी एक शोध को केवल पैसा कमाने का आधार बनाया जा सकता है। डब्ल्यूटीओ की शर्तों के अनुसार एक तय समय तक शोधकर्ता कंपनी का इसके उत्पादन और कीमत पर नियंत्रण होता है और अगर किसी ने इसकी नक़ल की तो बौद्धिक संपदा अधिकार के तहत उस पर आविष्कारक कंपनी मुकदमा कर सकती है।
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लेकिन चूंकि संकट मानव-अस्तित्व का है और गरीब देश के गरीब लोग इन कीमतों पर अपना इलाज नहीं करवा सकते लिहाज़ा इन कंपनियों को नैतिकता के आधार पर जेनेरिक दवा बनाने के लिए फार्मूला उपलब्ध करना चाहिए ताकि गरीब देशों में भी इनका उत्पादन और प्रयोग हो सके। विश्व की तमाम एनजीओज ने इस आशय की अपील की है। वायरस के जेनेटिक कोड में दोष पैदा करने के नए सिद्धांत पर टीके बनाने की संभावनाएँ भी तलाशनी होंगीं।