
विशेष आलेखः भारत के संविधान का अनुच्छेद ३२४ (१) चुनाव आयोग को चुनाव संचालन के अधीक्षण, निदेशन और नियंत्रण के निर्बाध अधिकार देता है. लेकिन संस्थाओं की शक्ति कानून के शब्दों से नहीं बल्कि उनके प्रयोग से मिलती है. वही कानून अगर सही प्रयोग हो तो संस्थाओं की उपादेयता और समाज में उसका सम्मान कई गुना बढ़ जाता है. सुप्रीम कोर्ट तक ने हाल हीं में एक सुनवाई के दौरान चुनाव आयोग से कहा कि वह अपनी शेषन काल वाली गरिमा फिर से हासिल नहीं कर सकता. दरअसल दो साल पहले आयोग ने इस कोर्ट में कहा कि “वह के दंतहीन शेर की मानिंद है”.

दरअसल आज उपलब्ध शक्तियों से कम शक्ति के बावजूद शेषन ने अपने कार्यकाल (१९९०-९६) में एक राज्यपाल को इस्तीफे पर मजबूर किया क्योंकि उसने चुनाव में अपने बेटे के लिए प्रचार किया. लेकिन लगभग ढाई साल बाद सन २०१९ में जब राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह ने अपने गृहनगर में चुनाव प्रचार किया तो वही आयोग कुछ नहीं कर सका. इस चुनाव में जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भारतीय आर्मी को “मोदी की सेना” कहा तो यह संस्था बांझपन दिखाती मिली. यह शेषन का हीं माद्दा था कि उन्होंने नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्रित्व में दो केन्द्रीय मंत्रियों—सीताराम केसरी और कल्पनाथ राय — को पद से हटाये जाने की सिफारिश की क्योंकि इन्होने चुनाव के दौरान मतदाताओं को गैरकानूनी तरीके से प्रभावित किया था. अपने पद पर आने के दो साल बाद हीं शेषन राजनीतिक दलों की आंख में खटकने लगे. मार्क्सवादियों ने तो इन के खिलाफ महाभियोग लाने तक प्रयास किया. लेकिन शेषन शेषन हीं रहे. शायद तब ईडी, आईटी और सीबीआई की हिम्मत अच्छे अफसरों को डरवाने की नहीं होती थी.
भारत में एक ज़माने में चुनाव में नीचे के तबके के लोगों के वोट दबंग वर्ग डाल देता था और तब यही आयोग दशकों तक इस जनमत का बलात्कार निरीह सा देखता रहता था.
कानून के प्रावधान अमल में तो लायें
जन-प्रतिनिधित्व (आरपी) कानून की धारा १२५ कहती है “कोई भी व्यक्ति ….निर्वाचन के संबंध में शत्रुता या घृणा की भावना भारत के नागरिकों के विभिन्न वर्गों के बीच धर्म, जाति, समुदाय या भाषा के आधारों पर सम्प्रवर्तित करेगा या सम्प्रवर्तित करने का प्रयत्न करेगा वह कारावास से …… दंडनीय होगा”. आचार-संहिता के शीर्षक “सामान्य आचरण” (1) के अनुसार “किसी भी राजनीतिक पार्टी की आलोचना उसकी नीतियों और कार्यक्रमों, अतीत के रिकॉर्ड और काम तक सीमित होगी गैर-प्रमाणित रिपोर्ट्स के आधार पर किसी उम्मीदवार की आलोचना नहीं की जा सकती है. वोट पाने के लिए जातिगत और सांप्रदायिक उन्माद नहीं भड़का सकते हैं….” जबकि उपखंड ३ के अनुसार “मस्जिद, मंदिर, गिरजाघर और अन्य धर्मस्थल चुनावी प्रोपगंडा का फोरम नहीं बनाया जा सकता”. पश्चिम बंगाल की सभाओं में मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी के सार्वजानिक मंचों से बयान “बाहरी बनाम भीतरी”, “मुसलमान एकजुट हों”, “केन्द्रीय बल के लोगों को घेर लो” “केन्द्रीय बल के लोग वोटरों से बीजेपी को वोट देने का दबाव बना रहे हैं”, हो या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के “अगर हमने ये कहा होता कि सारे हिन्दू एकजुट हो जाओ, भाजपा को वोट दो तो ८-१० नोटिस मिल गए होते” “ये सरकार केवल ३० परसेंट वालों की सरकार है” या “देना है तो मुझे गाली दो, मेरे दलित भाइयों को नहीं”, ऐसे वाक्य पूरे देश ने सुना. क्या ये वाक्य उपरोक्त उल्लंघन की श्रेणी में नहीं आते? लेकिन क्या आज के चुनाव आयोग में शेषन जैसी हिम्मत है. शायद नहीं क्योंकि उस समय तक मोदी और अमित शाह की जगह अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी हुआ करते थे और राजनीति में कुछ परदे अभी भी बचे थे.
भारत में लोगों की धार्मिकता या क्षेत्रीयता पोशाक से पहचान ली जाती है. धर्मस्थल का नाम एक पार्टी के घोषणापत्र में हीं नहीं मंचों से सन १९९६ के बाद लगातार आता रहा. क्या वह उल्लंघन है? चुनावी सभाओं में “जय श्री राम” या “अल्लाहोअकबर” सरीखे नारे क्या धार्मिक अपील और वैमनस्यता पैदा करने के तत्व नहीं हैं? चुनाव के दौरान धार्मिक स्थलों पर जाना और किसी देवी-देवता के नाम पर पाठ करना किस श्रेणी में आयेंगें? एक ज़माने में चुनाव के दौरान दीवालों पर लिखे “तिलक-तराजू और तलवार, इनको मारो …..” क्या धारा १२५ का उल्लंघन नहीं था. वर्तमान चुनाव आयोग सुप्रीम कोर्ट में कहता है वह दंत-विहीन शेर है. लेकिन शेषन ने इसे गलत साबित किया था. पश्चिम बंगाल चुनाव तो संपन्न हो जायेंगें लेकिन दो समुदायों के बीच की खलिश स्थाई रहेगी. चुनाव आयोग शक्ति के लिए एक गिडगिडाती संस्था बन जनता की नज़रों में सम्मान खो चुकी होगी.
-एन के सिंह