
विशेष संपादकीयः वर्ष २०१९-२० में ऍफ़सीआई और राज्य की संस्थाओं द्वारा कुल २.१५ लाख करोड़ का अनाज (९० मिलियन टन) किसानों से एमएसपी याने न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदा गया. कुल अनाज उत्पादन का यह करीब २८ प्रतिशत भले हीं था केवल छः प्रतिशत किसानों को इसका लाभ मिला. अगर आन्दोलनकारी किसानों की मांग के दबाव में इसे कानूनन बाध्यकारी बना दिया जाए अर्थात एमएसपी के दर पर सरकारी गोदामों पर बेंचने का किसानों को अधिकार मिल जाये तो सरकार को करीब ६.६० लाख करोड़ रुपये का अनाज खरीदना पडेगा. निजी क्षेत्र अगर इस दर पर खरीदता है तो अचानक महंगाई में जबरदस्त इजाफा होगा जो सरकार को अलोकप्रिय बनाएगा. साथ हीं कृषि क्षेत्र में एक और संकट आयेगा जब किसान अनाज, खासकर गेंहूं और चावल, को सहज लाभकारी पा कर अन्य वस्तुओं की खेती लगभग ख़त्म कर देगा. नतीजा यह होगा कि देश में पहले से हीं जरूरत से ३० प्रतिशत ज्यादा पैदा हो रहा गेंहू और चावल गोदामों में सड़ने लगेगा.

निर्यात का विकल्प भी बंद होगा क्योंकि भारत में अनाज उत्पदान की लागत अन्य निर्यातक देशों के मुकाबले काफी ज्यादा है. याने सरकार मजबूर होगी महंगा अनाज किसानों से लेकर उसे मजबूरन चूहों को खिलाने पर या सस्ते में विदेश भेज कर राजस्व घाटे को और बढ़ने में. किसान की मांग कहीं से गलत नहीं है क्योंकि प्राकृतिक आपदाओं से बचता-बचाता अनाज पैदा करने में अपनी हाड़ सुखा कर भी उसे बच्चों के तन पर कपड़ा और उनके स्कूल की फीस देना भर की आय नहीं होती. लिहाज़ा इस समस्या के दो समाधान है और दोनों एक साथ लागू करने होंगें.
पहला एमएसपी पर खरीद की बाध्यता की मांग तो मानी जाये पर केवल तीन-चार वर्षों के लिए. और इस बीच उत्पादन की जगह उत्पादकता बढाने के लिए वैज्ञनिक खेती को क्रांति बनाना, क्रॉप-रोटेशन (हर साल अदल-बदल कर अनाज-दलहन-तिलहन और नकदी फसल) बोना और हर खेत में अलग-अलग जींस बोना शुरू करना. आज जरूरत खेती में ज्यादा उत्पादन की नहीं बल्कि कम लागत में अनाज के अलावा अन्य वस्तुओं के उत्पादन की है. एमएसपी बाध्यकारी बना तो अर्थ-व्यवस्था में कई परिवर्तन मजबूरन करने होंगें. उधर किसानों को भी पारंपरिक खेती से अपने के हटाना होगा क्योंकि एक किलो धान पैदा करने में ४००० लीटर पानी का दोहन होता है.
-एन के सिंह, वरिष्ठ पत्रकार एवं पूर्व महासचिव, बीईए