
शिक्षा की स्थिति पर ‘स्वेता मेहता’ का आलेख

इतिहास इस बात का साक्षी रहा है कि जिस देश और सभ्यता ने ज्ञान को अपनाया है उसका विकास अभूतपूर्व गति से हुआ है। शिक्षा के महत्व का वर्णन करना शब्दों में बेहद मुश्किल है और शायद इसीलिए हर साल आठ सितंबर को विश्व साक्षरता दिवस मनाया जाता है। आज जब मौका भी है और दस्तूर भी, ऐसे अवसर पर नजर डालते हैं भारत में शिक्षा के हालात पर। साक्षरता आंदोलन की देश और समाज मे महत्वपूर्ण भूमिका है। निरक्षर व्यक्ति की तुलना सभ्य समाज में पशु समान की जाती है। आज के दौर मे व्यक्ति का साक्षर होना अति आवश्यक है जिससे व्यक्ति को अपने मौलिक अधिकारों और कर्तव्यों का बोध हो और वह समाज के प्रति अपने अधिकारों और दायित्व का निर्वहन भली भांति कर सके।हमारे भारत देश की 70 प्रतिशत जनता गांवों में निवास करती है जो गरीबी, अंधविश्वास, अशिक्षा के कारण कई अन्य प्रकार के शोषण का शिकार होते हैं। साक्षरता आंदोलन ने इस तरह के कई जाति, धर्म, स्थानीय और प्रांतीय भेदभाव की सीमाओं को तोड़ा है और लोगों को जागरूक किया है।
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भारत की साक्षरता के बढ़ते कदम
भारत विश्व की सबसे पुरानी सम्यताओं में से एक है जिसमें बहुरंगी विविधता और समृद्ध सांस्कृतिक विरासत है। इसके साथ ही यह अपने-आप को बदलते समय के साथ ढालती भी आई है। आजादी पाने के बाद पिछले 65 वर्षों में भारत ने बहुआयामी सामाजिक और आर्थिक प्रगति की है। लेकिन अगर साक्षरता की बात करें तो इस मामले में आज भी हम कई देशों से पीछे हैं। यहां आजादी के समय से ही देश की साक्षरता बढ़ाने के लिए कई कार्य किए गए और कानून बनाए गए पर जितना सुधार कागजों में दिखा उतना असल में नहीं हो पाया। 2011 की जनगणना के प्रारंभिक आंकड़ों के अनुसार देश में अब 82.1 फीसदी पुरुष और 64.4 फीसदी महिलाएं साक्षर हैं। पिछले दस वर्षों में ज्यादा महिलाएं (4 फीसदी) साक्षर हुई हैं। पहली बार जनगणना आंकडों में इस बात के सकारात्मक संकेत भी मिले हैं कि महिलाओं की साक्षरता दर पुरुषों की साक्षरता दर से 6.4 फीसदी अधिक है। लेकिन अरुणाचल प्रदेश और बिहार में अब भी सबसे कम साक्षरता है। वहीं केरल और लक्षद्वीप में सबसे ज्यादा 93 और 92 प्रतिशत साक्षरता है। केरल को छोड़ दिया जाए तो देश के अन्य शहरों की हालत औसत है जिनमें से बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों की हालत बहुत ही दयनीय है। यहां साक्षरता दर सबसे कम है। 1947 में स्वतंत्रता के समय देश की केवल 12 प्रतिशत आबादी ही साक्षर थी। वर्ष 2007 तक यह प्रतिशत बढ़कर 68 हो गया और 2011 में यह बढ़कर 74% हो गया लेकिन फिर भी यह विश्व के 84% से बहुत कम है। 2001 की जनगणना के अनुसार 65 प्रतिशत साक्षरता दर के साथ ही देश में 29 करोड़ 60 लाख निरक्षर हैं,जो आजादी के समय की 27करोड़ की जनसंख्या के आसपास हैं।
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स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत में 6-14 वर्ष के बच्चों के लिए संविधान में पूर्ण और अनिवार्य शिक्षा का प्रस्ताव रखा गया। वर्ष 1949 में संविधान निर्माण के छह दशकों से भी अधिक समय बीत जाने के बावजूद हम अपना लक्ष्य हासिल नहीं कर सके हैं। भारतीय संसद में वर्ष 2002 में 86वां संशोधन अधिनियम पारित हुआ जिसके तहत 6-14 वर्ष के बच्चों के लिए शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा दिया गया बावजूद इसके नतीजों में कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ। देश की बहुत सारी चुनौतियों और समस्याओं का समाधान करके एक बेहतरीन समाज बनाने का सपना तबतक साकार नहीं हो सकेगा। जबतक देश की एक ब़डी अशिक्षित आबादी साक्षर नहीं हो जाती। बेहतर साक्षरता दर से जनसंख्या बढ़ोत्तरी,गरीबी और लिंगभेद जैसी चुनौतियों से निपटा जा सकता है। देश में साक्षरता दर बढ़ाने के लिए भारत सरकार ने भी कई कदम उठाए हैं लेकिन इसके बावजूद इसके साक्षरता दर के विकास में अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकी है। भारत में सरकार द्वारा साक्षरता को बढ़ाने के लिए सर्व शिक्षा अभियान, मिड डे मील योजना, प्रौढ़ शिक्षा योजना, राजीव गांधी साक्षरता मिशन आदि न जाने कितने अभियान चलाए गए,मगर सफलता आशा के अनुरूप नहीं मिली। इनमें से मिड डे मील ही एक ऐसी योजना है जिसने देश में साक्षरता बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई। इसकी शुरूआत तमिलनाडु से हुई जहां 1982 में तत्कालीन मुख्यमंत्री एम.जी.रामचंद्रन ने 15 साल से कम उम्र के स्कूली बच्चों को प्रति दिन निःशुल्क भोजन देने की योजना शुरू की थी। इसके फलस्वरूप राज्य में साक्षरता 1981 के 54.4 प्रतिशत से बढ़कर 2001 में 73.4 प्रतिशत हो गई। इसके बाद 2001 में सर्वोच्च न्यायालय ने सभी राज्य सरकारों को सरकारी सहायता प्राप्त सभी स्कूलों में निःशुल्क भोजन देने की व्यवस्था करने का आदेश दिया था। इसके अलावा देश में 1998 में 15 से 35 आयु वर्ग के लोगों के लिए ‘राष्ट्रीय साक्षरता मिशन’ और 2001 में ‘सर्व शिक्षा अभियान’ शुरू किया गया। इसमें वर्ष 2010 तक छह से 14 आयु वर्ग के सभी बच्चों की आठ साल की शिक्षा पूरी कराने का लक्ष्य था। बाद में संसद ने चार अगस्त 2009 को बच्चों के लिए मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा कानून को स्वीकृति दे दी। एक अप्रैल 2010 से लागू हुए इस कानून के तहत छह से 14 आयु वर्ग के बच्चों को निःशुल्क शिक्षा देना हर राज्य की जिम्मेदारी होगी और हर बच्चे का मूल अधिकार होगा। इस कानून को साक्षरता की दिशा में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि माना जा रहा है। लेकिन इन सब के बावजूद ‘दिल्ली अभी दूर’ ही दिख रही है। आज जब विश्व आगे बढ़ता जा रहा है और अगर भारत को भी प्रगति की राह पर कदम से कदम मिलाकर चलना है तो साक्षरता दर में वृद्धि करनी ही होगी.देश में कम साक्षरता दर का एक कारण शिक्षा प्राप्त लोगों का बेरोजगार होना भी है। हमारे यहां की शिक्षा व्यवस्था में प्रयोगवादी सोच की कमी है।
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यहां थ्योरी तो बहुत ही बढ़िया ढंग से पढ़ा दी जाती है पर असल जिंदगी में उसका उपयोग कैसे किया जाए यह सिखाने में चूक हो जाती है। एक गरीब आदमी जब एक साक्षर आदमी को नौकरी की तलाश में भटकते हुए देखता है तो वह सोचता है कि इससे बढ़िया तो मैं हूं जो बिना पढ़े कम से कम काम तो कर रहा हूं और वह अपनी इसी सोच के साथ अपने बच्चों को भी शिक्षा की जगह काम करना सिखाता है। यही वजह है कि आज भी देश में अनेक जगहों पर बच्चे स्कूलों की बजाय चाय या कारखाने में काम करते देखे जाते हैं। देश में शिक्षा का कानून तो लागू तो कर दिया गया है पर उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे राज्य जहां गरीबी अधिक है वहां इसके सफल होने में काफी मुश्किलें आ रही हैं। ऐसे में देश की सरकार को समझना होगा कि सिर्फ साक्षर बनाने से लोगों का पेट नहीं भरेगा बल्कि शिक्षा के साथ उन्हें कुछ ऐसा भी सिखाना होगा जिससे बच्चे आगे जाकर अपना पेट पाल सकें।