फिल्म जब सिनेमा हॉल की रुपहले पर्दे पर डॉल्बी डिजिटल साउंड इफैक्ट के साथ दर्शकों को विस्मित करती है तो दर्शक स्वप्न की दुनिया में खो जाते हैं। लेकिन फिल्मों की इसी स्वप्निल दुनियां का एक स्याह सच यह भी है कि इसने कई उभरते कलाकारों को लील लिया। और ऐसा हीं कुछ सुशांत सिंह राजपूत जैसे प्रतिभाशाली कलाकार के साथ भी हुआ। कई उम्दा कलाकर भी शिकार हो गए बॉलीवुड की अंदरुनी राजनीति के, या यूं कह लें कि साज़िश के। प्रतीत होता है कि कुछ ऐसे लोगों का समुह है बॉलीवुड में जो किसी भी उभरते कलाकार को या तो अपने गुट में अपनी शर्तों पर शामिल करते हैं, नहीं तो इस उसे किसी भी तिकड़म से फिल्म जगत से निकाल बाहर करने का हर संभव उपाय किया जाता है। ऐसा इसलिए किया जाता है कि गुट का दबदवा कायम रहे। बिना गॉडफादर के इस इंडस्ट्री में अपने को बनाए रखना नामुमकिन सा लगता है। इस तरह के आरोप अगर बॉलिवुड पर लग रहे हैं तो इसमें सच्चाई जरुर होगी। कई फिल्मी कलाकारों ने या तो दबी जुबान या फिर खुलेआम इस तरह के गिरोह के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते रहे हैं। नतीजतन उन्हें तरह-तरह से परेशान किया गया। निर्देशकों और निर्माताओं को ऐसे कलाकारों को फिल्मों में नहीं लेने के लिए दबाव बनाए जाने लगा, यहां तक की धमकी मिलने की बात तक सामने आती रही है। धर्म और जातिवाद का आरोप भी लगता रहा फिल्म जगत के लोगों पर। एक दलित नेता के पुत्र के समर्थकों ने तो यहां तक आरोप लगाया कि दलित समाज के होने के कारण उस नेता पुत्र को फिल्मी दुनियां के लोगों ने स्वीकार नही किया और उन्हें फिल्में नहीं मिली।
किसी समय पूरी तरह से अंडरवर्ल्ड के इशारे पर चलने वाली बॉलीवुड में माफिया के लोगों का इतना खौफ था कि फिल्म का नाम, गाने, यहां तक की संवाद से लेकर किरदार तक के नाम भी अंडरवर्ल्ड के लोग हीं तय करने लगे थे। अंडरवर्ल्ड के सामने सबने घुटने टेक दिया था। उसी बीच दिल्ली के दरियागंज में कैसेट बेचने वाला गुलशन कुमार अपनी प्रतिभा के बल पर मुम्बई की फिल्म जगत में मुकाम हांसिल कर रहा थे। वह नए गायकों और कलाकारों को मौका दे रहे थे। लेकिन अंडरवर्ल्ड और उनके इशारे पर दुबई तक की महफिल को रंगीन करने वाले फिल्मी दुनियां के कुछ लोगों को यह रास नही आ रहा था। उन्हें ये लगने लगा था कि सस्ते कैसेट्स और नए कलाकारों के दम पर गुलशन कुमार उन तथाकथित उम्दा कलाकारों, गायकों और गीतकारों के एकाधिकार को खत्म कर देगा। गुलशन कुमार द्वारा नोएडा में फिल्म सिटी बनाने और टी-सीरीज की स्थापना ने कुछ लोगों को भयभित कर दिया। उन्हें लगने लगा कि कहीं फिल्मी दुनिया का साम्राज्य मुम्बई से दिल्ली एनसीआर में न शिफ्ट हो जाए। परिणामतः गुलशन कुमार की हत्या कर दी गई। उपर से रंगीन दिखने वाली मनोरंजन की दुनियां अंदर से कितना क्रुर है। स्थितियां यही बतातीं हैं कि भाई-भतीजावाद, गुटबंदी, माफिया हस्तक्षेप, कालाधन और गॉडफादर का कॉकस बन गई है फिल्म जगत।
कुछ ऐसे लोग हैं जिन्हें बर्दाश्त नही होता कि कोई नया इंसान आकर उनके साम्राज्य को तोड़े या नुकसान पहुंचाए। उन्होंने ऐसी घेराबंदी कर रखी है कि उस घेरे के अंदर का आदमी हीं इस मनोंरजन की दुनियां मे चहलकदमी कर सकता है, सपने देख सकता है या उसे साकार कर सकता है। इससे बाहर के आदमी को तो सपनों की दुनियां की थोड़ी उचांई तक जाने के बाद घेरकर ऐसा बींध दिया जाता है कि वो फड़-फड़ाकर जमीन पर आ गिरता है। अगर किस्मत अच्छी रही जो जीवित रहता है नहीं तो सुशांत सिंह जैसे हालात में आकर मौत को गले लगा लेता है। सबसे बुरी स्थिति तो उन कलाकारों की होती है, जो छोटे कस्बों और शहरों से निकलकर दिल्ली के मंडी हाउस के थिएटरों की दुनियां में अपने को मंझते हैं, नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में प्रशिक्षण लेते हैं, तो कुछ फिल्म इंस्टीट्यूट पुणे में अपने दम पर दाखिला लेते हैं। और फिर वहां से निकलने के बाद मुम्बई के चॉल में रहकर संघर्ष करना शुरु करते हैं। उन्हें उन कॉकस का भान तक नहीं होता है। पता तो तब चलता है जब शुरु होता है उन नवोदित कलाकारों का शोषण और उन्हें गुजरना पड़ता कास्टिंग काउच जैसे खेल से है। संघर्ष के पहले पड़ाव में ही कई प्रतिभाएं दम तोड़ देती हैं। थोड़ा साहस लगा कर जो आगे बढते हैं, वे उन लोगों द्वारा शिकार कर लिए जाते हैं, जो नहीं चाहते कि इस प्रतिभा की रोशनी जगत में फैले। अच्छी फिल्म बनाने और उम्दा एक्टिंग के बावजूद भी उन्हें अवार्ड से वंचित रखा जाता है। ऐसा उनका मनोबल तोड़ने के लिया किया जाता है। उन्हें या तो दौयम दर्जे का कलाकार बनाकर रख दिया जाता है या फिर हमेशा के लिए फिल्म जगत से बाहर भेजने का तिकड़म रचा जाता है। विरले हीं टिक पाये माया नगरी में।
ख़ैर, अब हर तरफ से जब सवाल उठ रहे हैं, और मांग की जा रही है कि भाई-भतीजावाद माफिया, गुटबंदी और गॉडफादर के कॉकस से फिल्मी दुनियां को आज़ाद कराई जाए ताकि प्रतिभाएं उभरें और दुनियां के सामने आए। मांग तो यह भी की जा रही है कि मुम्बई के अलावा अन्य जगहों पर भी फिल्म सिटी बनाई जाए। ऐसे कलाकारों का बहिष्कार हो जो उभरते कलाकारों के राह में रोड़ा अटकाटते हैं या फिर उन्हें प्रताड़ित करने का षड्यंत्र रचते हैं। मीडिया भी इसमें अपनी रचनात्मक भूमिका निभाता हुए दुनियां के सामने सच को उजागर करती रहे। उन कलाकारों के साथ खड़ी रहे जिनके साथ भेद भाव हो रहा हो। उनको ज्यादा प्रोमोट करे जिनमें क्षमता हो। पब्लिक रिलेशन, प्रचार-प्रसार और पैसों के सामने प्रतिभा धुंधली न हो जाए, यह दायित्व मीडिया का है। संभव है कि इस तरह के कदम उठाए जाने से बदलाव आए और नए उभरते कलाकारों को अपनी जौहर दिखाने का भरपूर अवसर मिले, ताकि भारत की फिल्म उध्योग दुनियां के सामने अपने हुनर का लोहा मनवा सके और फिर कोई सुशांत सिंह इस तरह से मौत को गले ना ले।