
वरिष्ठ पत्रकार एन के सिंह की कलम से
बिहार ब्रेकिंग

संगीत की दुनिया में भी हर राग का समय होता है. भैरवी शाम को नहीं बजाया जाता. संगीत मकरंद में नारद ने कहा है कि समयानुरूप राग न गाने से सुनने वालों का वालों का जीवन-काल तक प्रभावित होता है. प्रधानमंत्री ने एक बार फिर किसान सम्मान निधि की आठवीं क़िस्त देने के अवसर को देश भर में टीवी पर दिखवाया. इस स्कीम में करीब ११ करोड़ किसानों को ५०० रुपया महीना दिया जाता है. इस शो का उद्देश्य था देश में कैसे किसान सरकार की मदद से कृषि के नए आयाम खोज रहे हैं, यह देश भर को बताना. उन्होंने कहा कि आत्म-सम्मान और गौरव सबसे बड़ी पूँजी है. किसान सहित पूरा देश जब कोरोना से तिल-तिल कर दवा, इलाज़ और साधन के अभाव में मर रहा हो, बेचारगी में नदियों में लाशें बहाई जा रही हों, विदेशों से मदद की गुहार लगाई गयी हो, देशवासियों को यह बताना कि आत्म-सम्मान और गौरव सबसे बड़ी पूँजी है, प्रधानमंत्री की उस सोच का मुजाहरा है जिसमें औसत भारतीयों की समझ को नेता बेहद बचकाना मानता है. जब एक बच्चा असावधानी के कारण बाप की गोद से गिरने पर चोटिल हो कर रोने लगता है तो बाप उसे चुप कराने के लिए कहता है “धरती ने मारा है ये लो, हम इसको डंडे से मारते हैं”. प्रधानमंत्री ने कुछ इसी तरह लोगों की समझ को आँका.
देश जब दवा, बेड्स, इलाज, ऑक्सीजन और टीके के अभाव में मौत सामने देख रहा है, देर से हीं सही, प्रधानमंत्री के सांत्वना और भरोसे के दो शब्द देशवासियों ने सुने. इस पर कितना भरोसा होगा यह तो फिलहाल नहीं बताया जा सकता लेकिन यह न होता तो लोगों का निराशा-जनित आक्रोश जरूर बढ़ता जाता. प्रधानमंत्री ने किसानों के लिए सरकार द्वारा कल्याणकारी योजनाओं की तारीफ की और कहा कि पंजाब के किसान इससे बहुत खुश हैं. जाहिर है सरकार को सबसे बड़ा विरोध पंजाब के किसानों के लगातार चल रहे आन्दोलन को लेकर झेलना पडा है. दी जाने वाली रकम शायद हीं किसी किसान की स्थिति बदल रही हो. प्रधानमंत्री के दावे और वर्तमान हकीकत में उस समय भी विरोधाभास दिखा जब उन्होंने बताया कि गंगा के दोनों किनारों पर किसान जैविकीय खेती कर लाभ ले रहे हैं. शायद वह भूल गए कि अभूतपूर्व कोरोना संकट की इस घड़ी में पिछले एक सप्ताह से गंगा के दोनों किनारों के लगभग ६०० किलोमीटर लम्बे नद्य-मार्ग में हजारों की तादात में उत्तर प्रदेश और बिहार में लोगों के शव बहाने की तस्वीर और खबरें आ रहीं हैं. शायद किसी भी सभ्य समाज और उसकी प्रजातान्त्रिक सरकार के लिए इससे बड़ी कोई असफलता नहीं हो सकती. ऐसे में उनका सन्देश कि आत्म-सम्मान और गौरव सबसे बड़ी पूँजी है, उन लाखों लोगों के लिए जिनके परिजन ऑक्सीजन के बिना तड़प-तड़प कर दम तोड़ गए, ढाढ़स देने वाला तो दूर शायद अपनी राजनीतिक समझ पर कोफ़्त का होगा.
सत्य को नकारने और बच्चे को झुनझुना पकडाने के नेतृत्व की बेपरवाह हिमाकत का एक और उदाहरण देखें. लोगों से प्रधानमंत्री की अपील थी कि चूंकि टीका बचाव का बहुत बड़ा साधन है लिहाज़ा वे अपनी बारी आने पर टीका जरूर लगवाएं. गोया टीका तो गली-मोहल्लों में लग रहा है लेकिन ये “नासमझ” जनता लगवाने में दिलचस्पी नहीं रखती. एक बात फिर लोगों की (ना)समझी को लेकर नेतृत्व के धृष्ट विश्वास को दर्शाती है. लोगों में टीका लगवाने के प्रति उत्साह शायद दुनिया में सबसे ज्यादा है लेकिन इसके अभाव के कारण दर्जनों राज्यों ने टीकाकरण रोक दिया है. बेहतर होता देश का नेतृत्व टीके की उपलब्धता के प्रति लोगों को आश्वस्त करता. बहरहाल यह संबोधन देश की निराशा को शायद कुछ कम कर सके.
आत्ममुग्धता में गलती पर गलती।
पिछली २८ जनवरी को दावोस विश्व आर्थिक फोरम में दुनिया के नेताओं को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा “….. और बड़ी-बड़ी संस्थाओं ने क्या-क्या कहा था ? भविष्यवाणी की गयी थी कि पूरी दुनिया में कोरोना से सबसे प्रभावित देश भारत होगा, भारत में कोरोना संक्रमण की सुनामी आयेगी……. (यह व्यंग्यात्मक शैली प्रधानमंत्री के उस भाव का मुजाहरा है जिसमें नकारात्मक बात कहने वालों का मूर्ख माना जाता है. उन्होंने आगे कहा “आज भारत विश्व को दिशा दिखा रहा है.” हकीकत से कितना दूर है हमारा नेतृत्व ?
पहले तो दोबारा आने वाले खतरे और नए शत्रु की मारक-क्षमता का अहसास हीं नहीं हुआ, बल्कि उसकी जगह राजकीय आत्ममुग्धता ने प्रशासनिक उनींदेपन को जन्म दिया. जब शत्रु घर में घुस-घुस कर मारने लगा तो उसी “मैं कालजयी हूँ” के कुम्भकर्णी भाव ने चुनाव-दर-चुनाव और धार्मिक आयोजन की खुली छूट दी. जब सब कुछ विपरीत जाने लगा तो इस महामारी से लड़ने के हथियार गायब मिले. युद्ध जीतने का अंतिम ब्रह्मास्त्र – वैक्सीन—कम पड़ने लगी. सिस्टम की कोशिश तो यह होनी चाहिए कि हर कानूनी ताकत, रणनीतिक कौशल और संसाधन का इस्तेमाल कर इनका उत्पादन अगले कुछ हफ़्तों में कम से कम ढाई गुना बढ़ाया जाये लेकिन इस संकट के दो माह बाद भी ऐसा उपक्रम अभी तक देखने में नहीं आया. जो जनता देश के मुखिया की एक आवाज पर दिया-बत्ती, टार्च, घंटा, घड़ियाल ले कर नाचना शुरू कर देती थी यह मानते हुए यह मुखिया हर संकट से बचाएगा, वह आज तरस रही है उसकी राष्ट्र के नाम आश्वासन के लिए. अभी बहु-आयामी संकट की दहशत से लोग डिप्रेशन में जा रहे थे कि शासन के एक लाल-बुझक्कड़ ने अपने ब्रह्मज्ञान से बताया कि “तीसरी लहर भी आयेगी और वह इससे भी ज्यादा संघात-क्षमता वाली होगी”. यह ब्रह्मज्ञान दूसरी लहर के पहले नहीं आया था. अंतिम और सबसे भारी गलती हुई जब देश की सरकार ने टीकाकरण की पूर्व केंद्रीकृत व्यवस्था को बदलते हुए राज्यों और निजी अस्पतालों को सीधे वैक्सीन-निर्माताओं से टीके की कीमत के लिए मोल-तोल करने की व्यवस्था दी. सरकार यह नहीं समझ पायी कि सदियों की सबसे बड़ी त्रासदी का निदान केवल सरकार हीं कर सकती है याने केंद्र टीका खरीदे और सामान रूप से राज्यों और निजी अस्पतालों को मुफ्त या बेहद कम कीमत पर उपलब्ध कराये. पुरानी व्यवस्था इतनी पुख्ता थी कि २९००० टीका वितरण केन्द्रों से देश भर में इसका वितरण होता था, जिलों में एक संचित वातानुकूलित गोदाम से इसका वितरण प्रशासन करता था. अब ऐसे कोई व्यवस्था संभव नहीं क्योंकि हर अस्पताल, राज्य सरकार अगल-अलग दामों पर टीका हासिल करेगी तो भण्डारण कौन और किस दर पर करेगा? कोरोना पर जीत का एक हीं रास्ता है सरकार टीका उत्पादन बढ़ाये और वितरण की पहली वाली नीति लागू करे. बहरहाल देश के वर्तमान नेतृत्व को अपना भाव बदलना होगा देश की जानता के प्रति. जनता तभी तक किसी नेता को देवत्व देती है जबतक उसके “मानवोचित दुर्गुण” नहीं दिखाई देते.