
एनके सिंह, पूर्व महासचिव
ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन (बीईए)लेख

विशेष आलेख : भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने विगत ८ फ़रवरी को न्यूज़ चैनलों के स्व-नियमन संस्था को लिखा है कि कुछ चैनलों ने अपनी खबरों में दलित शब्द का प्रयोग किया है जो प्रोग्राम कोड के तीन उपबंधों –का उल्लंघन है. मंत्रालय ने इस सम्बन्ध में हाई कोर्ट के नागपुर पीठ के और मध्यप्रदेश हाई कोर्ट्स के दो फैसलों के मद्देनज़र ७ अगस्त, सन २०१८ में एक एडवाइजरी भी जारी किया था.
इसमें यह भी कहा गया कि दलित शब्द भारत के संविधान में नहीं है. सत्य यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने अनेक फैसलों में दलित शब्द का प्रयोग किया है. सरकार की एडवाइजरी उस समय आयी थी जब देश भर में दलित प्रताड़ना की घटनाएँ हुई थीं. वेमुला (आँध्रप्रदेश), उना (गुजरात) भीम आर्मी के नेता को जेल में रखना और भीमा कोरेगांव की घटनाएँ और उसी साल के २ अप्रैल को दलितों का अखिल -भारत विरोध दिवस मनाना, जिसमें दस लोग मारे गए थे , सरकार के आँख की किरकिरी बनी हुई थीं. “कोर्ट के आर्डर के अनुपालन में” शीर्षक इस एडवाइजरी के जारी होने के मात्र कुछ दिनों पहले (और आज तक) याने १४ अप्रैल को देश के कानून मंत्री की उपस्थिति में बिहार के मुख्यमंत्री ने “महादलितों की सूची” में एक नयी जाति के शामिल होने की घोषणा की. महादलित जैसा कोई वर्ग भारत के संविधान में आज भी नहीं है. कानून मंत्री ने इस घोषणा पर ताली भी बजाई थी क्योंकि उनकी पार्टी भी राज्य में वर्षों से सत्ता में थी और आज भी है.
सवाल यह है कि दलित शब्द के संविधान में न होने पर भी महादलित शब्द पिछले दस वर्षों से कैसे एक सरकारी अस्तित्व में आ कर आरक्षण का एक नया वर्ग बना? और वह भी उस पार्टी की सरकार में जो केंद्र में भी छः साल से सत्ता में है.
अगर दलित शब्द बकौल मंत्रालय केबल नियमावली, १९९४ के प्रोग्राम कोड के उपबंध (६) (१) ए, सी और आई का उल्लंघन है याने गुड टेस्ट और शिष्टता के खिलाफ है, किसी समुदाय, धर्म पर हमला है या सांप्रदायिक भावना को उभरता है या किसी व्यक्ति या समूह की निंदा या नीचा दिखता है तो महादलित कैसे किसी समूह का उत्थान- सूचक हो सकता है. फिर बॉम्बे हाई कोर्ट ने तो सरकार से सिर्फ यह पूछा था कि इस शब्द को हटाने के बारे में उसका क्या विचार है. स्वयं जब सुप्रीम कोर्ट की सात-सदस्यीय संविधान पीठ ने एसपी गुप्ता केस के फैसले में दलित शब्द कई बार प्रयुक्त किया. इसी फैसले में “दलित-जस्टिस” इस बात की तस्दीक थी कि दलितों के प्रति न्याय राज्य की एक संवैधानिक बाध्यता है. अशोक कुमार गुप्ता बनाम उत्तर प्रदेश में तो इसी कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद १७ का हवाला देते हुआ कहा “दलितों की अक्षमता के ऐतिहासिक साक्ष्य देखने के बाद हीं भारत के संविधान ने छुआछूत उन्मूलन किया”.
खासबात यह है कि स्वयं यह अनुच्छेद में दलित शब्द नहीं था लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने किया. बाद के कम से कम दो और फैसलों में इसी कोर्ट ने इस शब्द से गुरेज नहीं की. संविधान के अनुच्छेद १४१ के तहत सुप्रीम कोर्ट के आदेश नीचे की अदालतों के लिए बाध्यकारी होते हैं. मध्यप्रदेश हाई कोर्ट की मात्र सलाह सरकार की बाध्यता कैसे हो गयी? मंत्रालय को चाहिए कि इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट से इस मुद्दे पर स्पष्ट आदेश ले क्योंकि देश भर में राजनीतिक, सामाजिक और अकेडमिक चर्चाओं में हीं नहीं स्वयं सरकार के दस्तावेजों में आज भी दलित शब्द कानूनी स्थान रखता है. और आने वाले दिनों में भारतीय जनता पार्टी के कई मुख्यमंत्री आरक्षण को लेकर दलित वर्क में से महादलित का नया वर्ग पैदा कर राजनीतिक लाभ लेने को तत्पर हैं. बिहार सरकार का मॉडल इन मुख्यमंत्रियों को भा रहा है.
शायद इसी दिन के अहसास पर दुष्यंत कुमार ने लिखा था —
“मत कहो, आकाश में कुहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है ,
दोस्तों ! अब मंच पर सुविधा नहीं है,
आजकल नेपथ्य में संभावना है ”