
एन के सिंह, वरिष्ठ पत्रकार की कलम से

वादा तो था कर्णप्रिय अंगरेजी जुमलों “मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस” (न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन), “कोआपरेटिव फेडरलिस्म” (सहकारी संघवाद) और “सबका साथ-सबका विकास-सबका विश्वास” का लेकिन छः साल के शासन-काल में हकीकत इन वादों के ठीक उलट रही। ताज़ा उदाहरण है सीएजी की संसद में पेश की गयी रिपोर्ट जिसमें खुलासा हुआ कि केंद्र सरकार ने कानून का उल्लंघन करते हुए राज्यों के जीएसटी नुकसान की भरपाई के लिए मुक़र्रर धन को उन्हें न देकर उसे संचित निधि में डाल कर अन्य मदों में खर्च किया गया। अभी पिछले सप्ताह हीं वित्तमंत्री ने सदन में अटॉर्नी जनरल की राय का हवाला देते हुए कहा था कि संचित निधि से राज्यों को जीएसटी घाटे की भरपाई का कोई प्रावधान नहीं है।
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सीएजी का अनुसार केंद्र ने वित्त-वर्ष 2017 और 18-19 में कुल 47272 करोड़ रुपये की जीएसटी भरपाई उपकर (सेस) की राशि को संचित निधि में डाल कर उसे राजस्व करार देते हुए वित्तीय-घाटा कम करके बताया। रिपोर्ट में बताया गया है कि यह ट्रान्सफर जीएसटी भरपाई उपकार कानून, 2017 का उल्लंघन है। इसके कानून के तहत केंद्र को साल भर में हासिल यह पैसा केवल नॉन-लैप्सेबल (समयबाधा-मुक्त) जीएसटी भरपाई उपकर निधि में हीं रखा जा सकता है और वह भी केवल राज्यों को देने के लिए। क्या यही है “सहकारी संघवाद”। राजस्व के संकट से जूझ रहे राज्य इस खबर के बाद कैसे केंद्र सरकार पर भरोसा करेंगें?
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वित्तमंत्री ने सदन में कहा था “सेस के द्वारा जितना कॉम्पेनसेशन कलेक्ट होता है वह होता है, कॉम्पेनसेशन जिसे स्टेट्स को देना होता है, अगर सेस कलेक्शन में कुछ नहीं है तो कुछ नहीं है। और एजी (अटॉर्नी जनरल) ने राय दी है कि संचित निधि से राज्यों को भरपाई का कोई प्रावधान नहीं है”। यहाँ सरकार ने यह नहीं बताया गया सेस को संचित निधि में ट्रान्सफर किया जाना हीं कानून का उल्लंघन था। यानि सेस का ट्रान्सफर लोक-खाते के 2047 (अन्य वित्तीय सेवाएं) में होना था जिसे सरकार ने खता संख्या 3601 (ट्रान्सफर ऑफ़ ग्रांट्स-इन-एड टू स्टेट्स) में जमा कर दिया जबकि यह सेस सधे राज्यों का हक़ है न कि ग्रांट्स-इन-एड। दरअसल सीएजी की रिपोर्ट से राज यह खुला कि केंद्र ने यह हेराफेरी वित्तीय घाटा कम दिखाने के लिए किया था।