
वरिष्ठ पत्रकार एन के सिंह की कलम से
संस्थाओं की किस्म और नैतिक दायित्व। मीडिया में सुधार चाहते हैं तो सिर्फ गाली न दें बल्कि घटिया और बायस्ड खबरों, एक तरफ़ा चैनलों और अनपढ़ पत्रकारों को रिजेक्ट करें
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हाल के अपने “कृत्यों” की वजह से भारतीय मीडिया जनता की जबरदस्त आलोचना का शिकार है। एक तरफ “गोदी मीडिया” है जो “राष्ट्र-भक्ति” के नये रसधार में डूबते-उतराते एक दाढ़ीवाले और एक तिलक वाले को बैठा कर पहले को साथ मिलाकर दूसरे के खिलाफ रोजाना “प्राइम-टाइम” में धोबी-पछाड़ दांव का प्रयोग करती है तो दूसरी ओर “सेक्युलर” मीडिया का छोटा सा लेकिन “जहर से स्याह हुआ” वर्ग है जिसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हर काम में खोट नज़र आता है। मसलन, मोदी के कपड़े, मोदी की विदेश-यात्रा, मोदी का चीनी नेता जिनपिंग को झूला झुलाना और फिर उसी चीन से युद्ध की तैयारी करना असफलता की पराकाष्ठ लगती है। मोदी की गलतियों से अगर जनता को मुतास्सिर करना हीं है तो फसल बीमा योजना, स्किल इंडिया और मेक इन इंडिया की असफलता को सरकार के हीं आंकड़ों से सिद्ध कर सकते हैं पर इसके लिए पढाई करनी पड़ेगी, जो भडैती की आदत पड़ने पर ख़त्म हो जाती है। मोदी के खिलाफ मोर्चा खोलने वाला भी उतना हीं अनपढ़ है। वह तैयार बैठा होता है कि कोई भूख से मरे और वह आरटीआई से पीएमओ में चाय-पानी का खर्च (हालांकि वह दिया नहीं जाता) दिखा कर सरकार को अयोग्य घोषित करे अपनी खास व्यंग्यात्मक शैली में हल्की मुस्कराहट छोड़ते हुए। दोनों पक्षों का “खूंटा यहीं गड़ेगा” का भाव है। “गोदी मीडिया” के दुलारों को सरकार भांति-भांति के अवार्ड या सरकारी पदों से दुलार रही है तो “सेक्युलर मीडिया” के झंडाबरदारों को अन्तर्राष्ट्रीय या गैर-भाजपा-प्रेरित संस्थाएं “सम्मान” से पुचकार रही हैं।
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कुल मिलाकर मीडिया के एक बड़े वर्ग का भांडपन तब अपने चरम पर तब दिखाई देता है जब अमिताभ बच्चन का कोरोना मुतवातिर एक हफ्ते तक देश की सबसे बड़ी न्यूज़ बना रहता है जिसमें अरबों कमाने वाले यह एक्टर बचपने में नाश्ता क्या करते थे, से अस्पताल में नर्सों से भी कैसे अपनेपन से दवा लेते हैं, यानि इनका समाज के प्रति कैसा उदात्त भाव है, बताया जाता है। कोई ताज्जुब नहीं कि कुछ दिन अमिताभ और अस्पताल में रह जाते तो गाँधी और उनके बीच तुलना के लिए कुछ स्टूडियो डिस्कशन्स करा दिए जाते। एक्टर सुशांत का मरना दुनिया का सबसे बड़ा जलजला बन हफ़्तों तक हमारी बौद्धिक सोच की जड़ों को मट्ठा देता रहता है। भारतीय मीडिया ऐसा केवल इसलिए नहीं है कि यह अपने लाभ के लिए कुछ भी करने को तैयार है। यह सब इसलिए भी है कि मीडिया में शीर्ष पर एक बड़ा वर्ग बैठा है जो वहाँ बैठने की अर्हता दूर-दूर तक नहीं रखता। आज इन शीर्ष पदों पर बैठे और देश भर में पहचाने जाने संपादकों-एंकरों में से अधिकांश को वारेन हेस्टिंग्स और वारेन बफेट में से कौन पहले दुनिया में आया, शायद हीं मालूम हो। चूंकि ये नहीं जानते कि भारत में कितना अनाज पैदा होता है या डाई-अमोनियम फॉस्फेट बम बनाने के काम आता है या खेत में डालने के या संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के आठ युक्तियुक्त निर्बंध (रिज़नेबल रेस्ट्रिक्शन्स) कौन से हैं लिहाज़ा ये न्यूज़ का चुनाव में भी अमिताभ के कोरोना और सुशांत की मौत से ऊपर नहीं बढ़ पाते। खेती में प्रति हेक्टेयर लागत मूल्य का बढना भी किसानों के लिए क़यामत बरपा कर सकता है, इनकी समझ में हीं नहीं आता। लिहाजा नए अध्यादेश के तहत किस तरह उद्योपति देश की कृषि, उत्पादन और उसकी प्रकृति पर पूरा नियंत्रण करके मोनोपोली का नया इतिहास रचने जा रहे हैं यह भी उनकी समझ से बाहर है। अगर देश का जीडीपी विकास-दर बढ़ गया है तो गोदी मीडिया “मोदी-भक्ति” के डेलिरियम में चीखने लगेगा क्योंकि उसे यह नहीं मालूम कि मानव विकास सूचकांक (जो विकास का असली पैमाना है) क्या होता है। अगर इस पैमाने पर भारत गिर भी जाये तो शाहरुख़ –सलमान अनबन से काम चला लेंगें। अगर नवम्बर-दिसम्बर माह में डीएपी खाद का संकट है तो लाखों रुपये महीने की पगार पाने वाले इन एडिटरों के यह बात सिर के ऊपर से निकल जायेगी कि किसानों का क्या हश्र होगा।
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आसान है एडिटर के लिए कि रिपोर्टर को किसी एक्ट्रेस के घर के सामने भेज कर ओबी लगा कर तीन घंटें समाज को बताता रहे कि “आजकल किस एक्टर से चल रहा है।” इसमें बीच-बीच में “मुन्नी कैसे बदनाम हुई” का ठुमका दिखा कर एक ओर टीआरपी लूटा जा सकता है और दूसरी ओर आम दर्शक की सोच को और जडवत किया जा सकता है। कोई आंकड़ा जानने या संविधान पढने की जरूरत हीं नहीं है। ये या इनका मालिक राज्यसभा की सदस्यता या उच्च नागरिक अवार्ड को जीवन की सार्थकता समझते हैं लिहाज़ा मोदी में इन्हें “रब” दिखता है। छः साल पहले दूसरा धड़ा हिन्दुओं को गरिया कर आत्मतोष से लबरेज हो जाता था।
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संस्थाओं की प्रकृति और दायित्व में रिश्ता
दुनिया भर के प्रजातंत्र में तीन तरह की संस्थाएं होती हैं। पहला-औपचारिक, दूसरा- अर्ध-औपचारिक तथा तीसरा- अनौपचारिक। कार्यपालिका, न्यायपालिका और कुछ प्रक्रियाओं में विधायिका औपचारिक और मूर्त सस्थाएं होती हैं। इनके पास जनता का पैसा खर्च करने और उनके लिए नीति/कानून बनाने का अधिकार होता है या इनके फैसलों का समाज को आप्त-वचन मान कर अनुपालन करना होता है और न करने पर सजा का प्रावधान होता है। इन संस्थाओं को चलाने वालों से सर्वोच्च स्तर की नैतिकता की अपेक्षा होती है। दूसरा; अर्ध-औपचारिक संस्थाओं में कुछ अर्ध-सरकारी संस्थाएं, चुना हुआ म्युनिसिपल कारपोरेशन, जिला परिषद् या ब्लाक समितियां आती हैं। लिहाज़ा जिला-परिषद् के चेयरमैन से लेकर ग्राम-प्रधान तक से नैतिक मूल्यों पर खरा उतरने की दरकार होती है. तीसरा: पूर्ण अनौपचारिक संस्थाएं। ये वे सस्थाएं हैं जिनकी भूमिका तो समाज में होती है लेकिन इन पर संस्था के रूप में कोई कानूनी अंकुश लगाना संभव नहीं होता क्योंकि इनकी सामूहिक स्वतन्त्रता भी व्यक्तिगत स्वातंत्र्य का विस्तार भर होती है। यानि जो नैतिकता का तकाजा सामान्य नागरिक के लिए होता है वही इनके लिए भी।
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उदाहरण- भारत के संविधान का अनुच्छेद १९(१) (अ) जिस अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता देता है वह सभी नागरिकों के लिए है न कि किसी मीडिया के व्यक्ति या संस्था के लिए। एक डॉक्टर के इलाज़ की गुणवत्ता या वकील के केस लड़ने के तरीके को चुनौती देना व्यावहारिक रूप से असम्भव होता है क्योंकि यह उसके बौद्धिक समझ पर अंकुश लगाना है। बुखार सामान्य जुकाम में होता है, कोरोना, टीबी और कैंसर में भी। एक गरीब रोगी को पहले हीं दिन डॉक्टर महंगे आरटी-पीसीआर या जीन-एक्सपर्ट मॉलिक्यूलर टेस्ट के लिए नहीं भेजा जाता। लेकिन अनैतिक डॉक्टर अगर ये जांच करवाता है और निजी पैथोलॉजी लैब से कमीशन लेता है तो दुनिया का कोई कानून उसके प्रोफेशनल फैसले पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगा सकता। वकील मुकदमें में कौन सा पक्ष बहस में उठाएगा और कैसे उसके गलत बहस से मुवक्किल को जेल हो गयी इस पर कोई प्रश्न नहीं कर सकता। कोई पत्रकार सुशांत को कितना दिखाए यह प्रोफेशनल एथिक्स का प्रश्न नहीं हो सकता वैसे हीं जैसे एक चैनल अगर भारत के बजट के दिन माइकेल जैक्सन का डांस दिखता है तो कोई उसके फैसले पर उंगली नहीं उठा सकता। चुनाव में कोई मीडिया हाउस अन्य सभी चैनलों या अख़बारों से अलग अगर लगातार किसी एक पार्टी की भावी जीत की खबर परोस रहा है तो कोई भी उसकी समझ को कानूनन गलत नहीं ठहरा सकता। भले ही चुनाव के बाद वह पत्रकार या मालिक राज्य-सभा का सदस्य बना दिया जाये या नागरिक सम्मान से नवाजा जाये या किसी उस पार्टी की सरकार उसे कोई बड़ा विज्ञापन दे दे। यहाँ तक कि इस पार्टी की सरकार किसी बड़े उद्योगपति से इस मीडिया हाउस में पैसा लगाने का इशारा भी कर सकती है। कैसे समाज इन पर अंकुश लगा सकता है?
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केवल एक हीं तरीका है। समाज का अपना निष्पक्ष विवेक, अपनी वैज्ञानिक तर्क-शक्ति जो विश्वसनीयता की तराजू पर मीडिया की संस्थाओं और रिपोर्टों/संपादकों को तौले और तत्काल उनके अविश्वसनीय होने पर उन्हें ख़ारिज करे। समाज का यह रवैया ऐसे अनैतिक संस्थाओं और प्रत्रकारों का अकाल प्रोफेशनल मौत का सबब बनेगा। पर क्या समाज निष्पक्ष खबरें चाहता है? क्या समाज के लोगों में आज अनवरत मोदी की तारीफ सुनने या शाश्वत बुराई सुनने का शौक नहीं है?